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ये हस्ब-ए-अक़्ल तो कोई नहीं सामान मिलने का | शाही शायरी
ye hasb-e-aql to koi nahin saman milne ka

ग़ज़ल

ये हस्ब-ए-अक़्ल तो कोई नहीं सामान मिलने का

नज़ीर अकबराबादी

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ये हस्ब-ए-अक़्ल तो कोई नहीं सामान मिलने का
मगर दुनिया से ले जावेंगे हम अरमान मिलने का

अजब मुश्किल है क्या कहिए बग़ैर-अज़-जान देने के
कोई नक़्शा नज़र आता नहीं आसान मिलने का

हमें तो ख़ाक में जा कर भी क्या क्या बे-कली होगी
जब आ जावेगा उस ग़ुंचा-दहन से ध्यान मिलने का

किसी से मिलने आए थे सो याँ भी हो चले इक दम
कहे देता हूँ ये मुझ पर नहीं एहसान मिलने का

'नज़ीर' इक उम्र हम उस दिल-रुबा के वस्ल की ख़ातिर
बहुत रोए बहुत चीख़े प क्या इम्कान मिलने का

हमारी बे-क़रारी इज़्तिराबी कुछ न काम आई
वो ख़ुद ही आ मिला जब वक़्त आया आन मिलने का