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ये ग़म नहीं कि ख़ुशी में भी कुछ मज़ा न रहा | शाही शायरी
ye gham nahin ki KHushi mein bhi kuchh maza na raha

ग़ज़ल

ये ग़म नहीं कि ख़ुशी में भी कुछ मज़ा न रहा

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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ये ग़म नहीं कि ख़ुशी में भी कुछ मज़ा न रहा
हमें ये ग़म है कि अब ग़म भी जाँ-फ़ज़ा न रहा

वो ख़्वाब था कि जिएँ दिल की आरज़ू के लिए
ये वाक़िआ है कि मरने का हौसला न रहा

न कोई यार न कोई दयार क्या कीजे
सिवाए साँस के अब कोई सिलसिला न रहा

ज़बान काँटों की प्यासी रहे रहे न रहे
हमारे पाँव में जब कोई आबला न रहा

बस एक अर्ज़ ओ समा रह गए हैं ले दे के
सिवाए उन के कोई अपना आश्ना न रहा

हज़ार नक़्श बना और हज़ार नक़्श मिटा
किसी वरक़ पे हक़ीक़त का माजरा न रहा