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ये फ़ैसला तो बहुत ग़ैर-मुंसिफ़ाना लगा | शाही शायरी
ye faisla to bahut ghair-munsifana laga

ग़ज़ल

ये फ़ैसला तो बहुत ग़ैर-मुंसिफ़ाना लगा

मुज़फ़्फ़र वारसी

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ये फ़ैसला तो बहुत ग़ैर-मुंसिफ़ाना लगा
हमारा सच भी अदालत को बाग़ियाना लगा

हमारे ख़ून से भी उस की ख़ुशबुएँ फूटीं
हमें तो क़त्ल भी कर के वो बेवफ़ा न लगा

लगाई आग भी इस एहतिमाम से उस ने
हमारा जलता हुआ घर निगार-ख़ाना लगा

हम इतना रूह की गहराइयों के आदी थे
कि डूबता हुआ दिल डूबता हुआ न लगा

ये ख़ाम माल मिलेगा बहुत ही कम दामों
लहू हो जिस की ज़रूरत वो कारख़ाना लगा

किसी भी शख़्स से जब उस की ख़ैरियत पूछी
तो अपना लहजा-ए-पुर्सिश भी ताज़ियाना लगा

ये कौन लोग 'मुज़फ़्फ़र' की कर रहे थे बुराई
मिले हैं हम भी बहुत हम को वो बुरा न लगा