ये फ़ैसला तो बहुत ग़ैर-मुंसिफ़ाना लगा
हमारा सच भी अदालत को बाग़ियाना लगा
हमारे ख़ून से भी उस की ख़ुशबुएँ फूटीं
हमें तो क़त्ल भी कर के वो बेवफ़ा न लगा
लगाई आग भी इस एहतिमाम से उस ने
हमारा जलता हुआ घर निगार-ख़ाना लगा
हम इतना रूह की गहराइयों के आदी थे
कि डूबता हुआ दिल डूबता हुआ न लगा
ये ख़ाम माल मिलेगा बहुत ही कम दामों
लहू हो जिस की ज़रूरत वो कारख़ाना लगा
किसी भी शख़्स से जब उस की ख़ैरियत पूछी
तो अपना लहजा-ए-पुर्सिश भी ताज़ियाना लगा
ये कौन लोग 'मुज़फ़्फ़र' की कर रहे थे बुराई
मिले हैं हम भी बहुत हम को वो बुरा न लगा
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ग़ज़ल
ये फ़ैसला तो बहुत ग़ैर-मुंसिफ़ाना लगा
मुज़फ़्फ़र वारसी