EN اردو
ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है | शाही शायरी
ye dil ab mujhse thoDi der sustane ko kahta hai

ग़ज़ल

ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है

मनमोहन तल्ख़

;

ये दिल अब मुझ से थोड़ी देर सुस्ताने को कहता है
और आँखें मूँद कर हर बात दोहराने को कहता है

हमारी गुमरही की बात ही छोड़ो कि हर जादा
कहीं तक ख़ुद को अब हम से ही पहुँचाने को कहता है

रही हो वजह कोई भी अलग तो हो गए थे सब
ये मुझ में कौन फिर सब को बुला लाने को कहता है

मिरी मुश्किल को लेकिन कोई जाने भी तो क्या जाने
क़दम जो भी बढ़ाता हूँ पलट आने को कहता है

रहा यूँ उम्र भर जा-ए-अमाँ पाने को सर-गरदाँ
मिरा साया भी अब मुझ में समा जाने को कहता है

बहुत अर्सा हुआ महसूस तक हम को किए ऐसा
कोई हम को अकेला छोड़ कर जाने को कहता है

कहीं हम आएँ जाएँ तो ज़रा खुल जाएँ भी ख़ुद पर
यहाँ हर साँस जैसे ख़ुद से कतराने को कहता है

इधर सच है अकेला चल रहा है खोया खोया सा
बराबर चल रहा है झूट अपनाने को कहता है

यहीं हम घर में होते हैं तो फिर क्यूँ 'तल्ख़' ऐसा है
हर इक लम्हा हमें जिस तरह घर आने को कहता है