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ये दश्त-ए-शौक़ का लम्बा सफ़र अच्छा नहीं लगता | शाही शायरी
ye dasht-e-shauq ka lamba safar achchha nahin lagta

ग़ज़ल

ये दश्त-ए-शौक़ का लम्बा सफ़र अच्छा नहीं लगता

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

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ये दश्त-ए-शौक़ का लम्बा सफ़र अच्छा नहीं लगता
मगर ठहरूँ कहाँ कोई शजर अच्छा नहीं लगता

यही इक बात अब मैं सोचता रहता हूँ ख़ल्वत में
न जाने क्यूँ मुझे अब तेरा दर अच्छा नहीं लगता

करम करते नहीं क्यूँ तुम मिरे क़ल्ब-ए-शिकस्ता पर
मिरा यूँ ग़म-ज़दा रहना अगर अच्छा नहीं लगता

निगाहों से जो ओझल उस गुल-ए-रअना का जल्वा है
ये रंग-ए-शाम ये रंग-ए-सहर अच्छा नहीं लगता

उधर वो भी बिछड़ के हम से खोए खोए रहते हैं
अकेला मुझ को भी रहना इधर अच्छा नहीं लगता

उठी है जब से ये दीवार-ए-नफ़रत दल के आँगन में
मुझे ऐ दोस्तो ख़ुद अपना घर अच्छा नहीं लगता