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ये बुज़दिली थी हमारी बहादुरी न हुई | शाही शायरी
ye buzdili thi hamari bahaduri na hui

ग़ज़ल

ये बुज़दिली थी हमारी बहादुरी न हुई

फख्र ज़मान

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ये बुज़दिली थी हमारी बहादुरी न हुई
हज़ार चाहा मगर फिर भी ख़ुद-कुशी न हुई

कुछ इस तरह से ख़यालों की रौशनी फैली
तुम्हारी ज़ुल्फ़ भी बिखरी तो तीरगी न हुई

ये बे-हिसी थी रग-ओ-पै में अपने वस्ल की शब
हसीन पास रहे हम से दिल-लगी न हुई

वो तीरगी थी मुसल्लत फ़ज़ा-ए-आलम पर
लहू के दीप जले फिर भी रौशनी न हुई

किसी के दर्द को मैं जानता भला क्यूँ कर
ख़ुद अपने दर्द से जब मुझ को आगही न हुई

पुकारें 'फ़ख़्र' किसे दाम-ओ-दद किसे इंसाँ
जहाँ में हम को तो इतनी तमीज़ भी न हुई