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ये और बात कि ताख़ीर से अलग करूँगा | शाही शायरी
ye aur baat ki taKHir se alag karunga

ग़ज़ल

ये और बात कि ताख़ीर से अलग करूँगा

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

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ये और बात कि ताख़ीर से अलग करूँगा
मगर तुझे तिरी तस्वीर से अलग करूँगा

मुसाफ़िरत से जो फ़ुर्सत हुई नसीब तो फिर
थकन को पाँव की ज़ंजीर से अलग करूँगा

जो मेरे दाइमी एहसास से जुड़ा है सबक़
मैं किस तरह उसे तहरीर से अलग करूँगा

कुँवारे ख़्वाब हुए जा रहे हैं आवारा
उन्हें मैं लज़्ज़त-ताबीर से अलग करूँगा

उतारना है मुझे अब अना को मौत के घाट
सो उस को लहजा-ए-शमशीर से अलग करूँगा

मिरे बदन में लगी है जो हिज्र की दीमक
मैं उस को वस्ल की तदबीर से अलग करूँगा

रिवायतों से रखूँगा मैं 'फ़ैज़' रिश्ता मगर
सुख़न ज़रा सा तक़ी-'मीर' से अलग करूँगा