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यक़ीन-ए-सुब्ह-ए-चमन है कितना शुऊर-ए-अब्र-ए-बहार क्या है | शाही शायरी
yaqin-e-subh-e-chaman hai kitna shuur-e-abr-e-bahaar kya hai

ग़ज़ल

यक़ीन-ए-सुब्ह-ए-चमन है कितना शुऊर-ए-अब्र-ए-बहार क्या है

अर्शी भोपाली

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यक़ीन-ए-सुब्ह-ए-चमन है कितना शुऊर-ए-अब्र-ए-बहार क्या है
सवाल करते हैं दश्त-ओ-दरिया कि क़ाफ़िले का वक़ार क्या है

जो चल पड़े जादा-ए-वफ़ा पर उन्हें ग़म-ए-रोज़गार क्या है
सऊबतों के पहाड़ क्या हैं तमाज़तों का ग़ुबार क्या है

यहीं पे मंज़िल करेंगे राही यहीं पे सब क़ाफ़िले रुकेंगे
ठहर ज़रा शौक़-ए-सब्र दुश्मन ये दर्द बे-इख़्तियार क्या है

नसीब-ए-फ़र्दा पे शादमाँ हैं जुनूँ के मारों से कोई पूछे
ये क्यूँ गिरेबाँ है टुकड़े टुकड़े ये दामन-ए-तार तार क्या है

न उन का जादा न कोई मंज़िल न नूर-ओ-ज़ुल्मत का फ़र्क़ जानें
उन्हें ख़बर क्या कि है सहर क्या अँधेरी शब का ख़ुमार क्या है