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यही तमन्ना-ए-दिल है उन की जिधर को रुख़ हो उधर को चलिए | शाही शायरी
yahi tamanna-e-dil hai unki jidhar ko ruKH ho udhar ko chaliye

ग़ज़ल

यही तमन्ना-ए-दिल है उन की जिधर को रुख़ हो उधर को चलिए

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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यही तमन्ना-ए-दिल है उन की जिधर को रुख़ हो उधर को चलिए
हुआ है गो इश्तियाक़ बेहद जमा के पा-ए-नज़र को चलिए

हुए हैं महरूम-ए-दीद-ए-बे-दिल किया तजाहुल का उस ने बिस्मिल
वो दिल-रुबा बन गया है क़ातिल कमर को कस के सफ़र को चलिए

ग़रज़ थी इज़हार-ए-मुद्दआ से सितम को किया हो गए जो शाकी
वो देखते ही बिगड़ न जाएँ बुलाने अब नामा-बर को चलिए

बना है दम-साज़ कौन उन का पता नहीं मुद्दतों से लगता
ये राज़ हो जाए आश्कारा कहीं से लेने ख़बर को चलिए

अगर है शौक़-ए-जमाल-ए-जानाँ नहीं है कुछ पास-ए-वज़्अ'-ए-मौज़ूँ
शिकोह-ए-तमकीं विदाअ' कीजे मनाने उस इश्वा-गर को चलिए

शहीद है 'साक़ी'-ए-दुआ-गो कशीदा क्यूँ इस क़दर हुए हो
कभी तो ऐ यार देखने को ज़रा क़तील-ए-नज़र को चलिए