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यही सुनते आए हैं हम-नशीं कभी अहद-ए-शौक़-ए-कमाल में | शाही शायरी
yahi sunte aae hain ham-nashin kabhi ahd-e-shuq-e-kamal mein

ग़ज़ल

यही सुनते आए हैं हम-नशीं कभी अहद-ए-शौक़-ए-कमाल में

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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यही सुनते आए हैं हम-नशीं कभी अहद-ए-शौक़-ए-कमाल में
कोई शहर शहर-ए-वफ़ा भी था उसी सर-ज़मीन-ए-ख़याल में

मिरे दिल के ख़ून की मिस्ल था तुझे याद है मिरे दिलरुबा
कोई रंग रंग-ए-हिना भी था तिरे नक़्श-हा-ए-जमाल में

न वो झाँकना है गली गली न वो ताकना है कली कली
न कसक है हिज्र के दर्द में न दमक है शौक़-ए-विसाल में

कोई इक चमक मिरे दिल को दे कि सफ़र हुदूद-ए-ज़माँ का है
कोई एक साअ'त-ए-रौशनी मिरी गर्दिश-ए-मह-ओ-साल में

मुझे शर्क़-ओ-ग़र्ब से काम क्या कि मक़ाम-ए-शौक़ गुज़र गया
ये खिलाए दिल के हैं दाएरे ये सफ़र है अब मिरा हाल में

वो जो राह-ए-ज़ुल्म पे आँधियों में चराग़ ले के निकल पड़े
वो ज़वाल-ए-अस्र के सर-बुलंद कहाँ हैं अस्र-ए-ज़वाल में

ये जो तीरगी का तिलिस्म है यही रौशनी का भी इस्म है
हुआ 'बाक़र' आप के क़ौल का भी शुमार क़ौल-ए-मुहाल है