यहाँ तो क़ाफ़िले भर को अकेला छोड़ देते हैं
सभी चलते हों जिस पर हम वो रस्ता छोड़ देते हैं
क़लम में ज़ोर जितना है जुदाई की बदौलत है
मिलन के ब'अद लिखने वाले लिखना छोड़ देते हैं
कभी सैराब कर जाता है हम को अब्र का मंज़र
कभी सावन बरस कर भी पियासा छोड़ देते हैं
ज़मीं के मसअलों का हल अगर यूँ ही निकलता है
तो लो जी आज से हम तुम से मिलना छोड़ देते हैं
मोहज़्ज़ब दोस्त आख़िर हम से बरहम क्यूँ नहीं होंगे
सग-ए-इज़हार को हम भी तो खुल्ला छोड़ देते हैं
जो ज़िंदा हो उसे तो मार देते हैं जहाँ वाले
जो मरना चाहता हो उस को ज़िंदा छोड़ देते हैं
मुकम्मल ख़ुद तो हो जाते हैं सब किरदार आख़िर में
मगर कम-बख़्त क़ारी को अधूरा छोड़ देते हैं
वो नंग-ए-आदमियत ही सही पर ये बता ऐ दिल
पुराने दोस्तों को इस तरह क्या छोड़ देते हैं
ये दुनिया-दारी और इरफ़ान का दावा 'शुजा-ख़ावर'
मियाँ इरफ़ान हो जाए तो दुनिया छोड़ देते हैं
ग़ज़ल
यहाँ तो क़ाफ़िले भर को अकेला छोड़ देते हैं
शुजा ख़ावर