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यादों की दीवार गिराता रहता हूँ | शाही शायरी
yaadon ki diwar giraata rahta hun

ग़ज़ल

यादों की दीवार गिराता रहता हूँ

शाहबाज़ रिज़्वी

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यादों की दीवार गिराता रहता हूँ
मैं पानी से आँख बचाता रहता हूँ

साहिल पे कुछ देर अकेले होता हूँ
फिर दरिया से हाथ मिलाता रहता हूँ

यादों की बरसात तो होती रहती है
मैं आँखों से ख़्वाब गिराता रहता हूँ

'साहिर' की हर नज़्म सुना कर मजनूँ को
मैं सहरा का दर्द बढ़ाता रहता हूँ

दुनिया वाले मुझ को पागल कहते हैं
मैं सूरज से आँख मिलाता रहता हूँ

पत्थर-वत्थर मुझ से नफ़रत करते हैं
मैं अंधों को राह दिखाता रहता हूँ

मेरे पीछे क़ैस की आँखें पड़ गई हैं
दरिया दरिया प्यास बुझाता रहता हूँ

मुझ को दश्त-ए-सुकूत सदाएँ देता है
सहरा सहरा ख़ाक उड़ाता रहता हूँ

मुझ को मेरे नाम से जाना जाता है
मैं 'रिज़वी' का ढोंग रचाता रहता हूँ