EN اردو
याद के त्यौहार में वस्ल-ओ-वफ़ा सब चाहिए | शाही शायरी
yaad ke tyauhaar mein wasl-o-wafa sab chahiye

ग़ज़ल

याद के त्यौहार में वस्ल-ओ-वफ़ा सब चाहिए

सय्यद मुनीर

;

याद के त्यौहार में वस्ल-ओ-वफ़ा सब चाहिए
रात के रेशम में लिपटी आप की छब चाहिए

फिर हलावत से छलकते जाम ख़ाली हो गए
फिर ग़ज़ल को आप की शीरीनी-ए-लब चाहिए

रात की वादी में सारी रौनक़ें आबाद हैं
दिन के वीराने में भी इक गुलशन-ए-शब चाहिए

सोच और अल्फ़ाज़ की बेचैनियों में कुछ भी हो
बात की तह से निकलता साफ़ मतलब चाहिए

रौशनी की जब्र ने आँखों को ख़ीरा कर दिया
अब बसारत के लिए कुछ ज़ुल्मत-ए-शब चाहिए

रस्म की यकसानियत निय्यत का पर्दा बन गई
जो मुनाफ़िक़ का न हो ऐसा भी मज़हब चाहिए

अपने ग़म की उलझनें सुलझाओगे कब तक 'मुनीर'
दर्द आलम-गीर हो जाए यही अब चाहिए