EN اردو
वो ज़ुल्फ़ हवा से मुझे बरहम नज़र आई | शाही शायरी
wo zulf hawa se mujhe barham nazar aai

ग़ज़ल

वो ज़ुल्फ़ हवा से मुझे बरहम नज़र आई

मुनीर शिकोहाबादी

;

वो ज़ुल्फ़ हवा से मुझे बरहम नज़र आई
उड़ती हुई नागन क़द-ए-आदम नज़र आई

है पंजा-ए-रंगीं में हमारा दिल-ए-बेताब
ये आग तो सीमाब से बाहम नज़र आई

आग़ाज़ में हस्ती की अजल आ गई ऐ दिल
जो चीज़ मुअख़्ख़र थी मुक़द्दम नज़र आई

शबनम की है अंगिया तले अंगिया के पसीने
क्या लुत्फ़ है शबनम तह-ए-शबनम नज़र आई

मजरूह किया उल्फ़त-ए-अबरू ने दम-ए-हज
मेहराब-ए-हरम नाख़ुन-ए-ज़ैग़म नज़र आई

अदना है ये ऐ जान सरापे की लताफ़त
परछाईं तिरी हूर-ए-मुजस्सम नज़र आई

ज़ंजीर पहनने से हुआ क़ैदियों का नाम
हर एक कड़ी हल्क़ा-ए-ख़ातम नज़र आई

तौबा की मगर नश्शे से उस हूर-शियम ने
क्यूँ आतिश-ए-मय नार-ए-जहन्नम नज़र आई

तुम बालों को खोले हुए गुलशन में जो आए
हर शाख़-ए-शजर ज़ुल्फ़-ए-नमत-ख़म नज़र आई

बद-ज़न न हो किस तरह 'मुनीर' आज ख़ुदारा
मस्की हुई ऐ बुत तिरी महरम नज़र आई