वो ये कहते हैं ज़माने की तमन्ना मैं हूँ
क्या कोई और भी ऐसा है कि जैसा मैं हूँ
अपने बीमार-ए-मोहब्बत का मुदावा न हुआ
और फिर इस पे ये दावा कि मसीहा मैं हूँ
अक्स से अपने वो यूँ कहते हैं आईने में
आप अच्छे हैं मगर आप से अच्छा मैं हूँ
कहते हैं वस्ल में सीने से लिपट कर मेरे
सच कहो दिल तुम्हें प्यारा है कि प्यारा मैं हूँ
वो सताता है अलग चर्ख़-ए-सितम-गार अलग
सैकड़ों दुश्मन-ए-जाँ हैं मिरे तन्हा मैं हूँ
बख़्त बरगश्ता वो नाराज़ ज़माना दुश्मन
कोई मेरा है न ऐ 'हिज्र' किसी का मैं हूँ

ग़ज़ल
वो ये कहते हैं ज़माने की तमन्ना मैं हूँ
हिज्र नाज़िम अली ख़ान