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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को | शाही शायरी
wo ye kah kah ke jalata tha hamesha mujhko

ग़ज़ल

वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
और ढूँडेगा कहीं मेरे अलावा मुझ को

किस क़दर उस को सराबों ने सताया होगा
दूर ही से जो समझता रहा चश्मा मुझ को

मेरी उम्मीद के सूरज को डुबो के हर शाम
वो दिखाता रहा दरिया का तमाशा मुझ को

जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
ख़ुद को बाँटेगा तो देगा मिरा हिस्सा मुझ को

फिर सजा देगा वो यादों के अजाइब-घर में
सोच कर अहद-ए-जुनूँ का कोई सिक्का मुझ को

मेरे एहसास के दोज़ख़ में सुलगने के लिए
छोड़ देगा मिरे ख़्वाबों का फ़रिश्ता मुझ को

फिर ये होगा कि किसी दिन कहीं खो जाएगा
इक दोराहे पे बिठा के मिरा रस्ता मुझ को

लोग कहते हैं कि जादू की सड़क है माज़ी
मुड़ के देखूँगी तो हो जाएगा सकता मुझ को

सब्ज़ मौसम की इनायत का भरोसा भी नहीं
कब उड़ा दे ये हवा जान के पत्ता मुझ को

वक़्त हाकिम है किसी रोज़ दिला ही देगा
दिल के सैलाब-ज़दा शहर पे क़ब्ज़ा मुझ को

मैं न लैला हूँ न रखता है वो मजनूँ का मिज़ाज
उस ने चाहा है मगर मेरे अलावा मुझ को