EN اردو
वो सफ़ाई कभी जो हम से मुलाक़ात में थी | शाही शायरी
wo safai kabhi jo humse mulaqat mein thi

ग़ज़ल

वो सफ़ाई कभी जो हम से मुलाक़ात में थी

मिर्ज़ा अली लुत्फ़

;

वो सफ़ाई कभी जो हम से मुलाक़ात में थी
साफ़ कुल साख़तगी उस की हर इक बात में थी

जो भली आ के कही सेहर है समझा न उसे
कल बुरी जो कही दाख़िल वो करामात में थी

है दिल-ए-ग़ैर को उस नावक-ए-मिज़्गाँ से अब उन्स
जो कि नित अपने जिगर-दोज़ियों के घात में थी

सुनते हैं ग़ैर से वो बात ब-आवाज़-ए-बुलंद
क्या क़यामत है कि जो हम से इशारात में थी

क्या ग़ज़ब है वही आईना-पन अब लाख से है
जो सफ़ाई कभी हम से किसी औक़ात में थी

कोई हाजत नहीं अब ग़ैर की जो हो न रवा
ये तो आगे न मिरे क़िबला-ए-हाजात में थी

इतना जूया-ए-मुलाक़ात न होता था 'लुत्फ'
शक्ल निभने की जो कुछ थी सो मुसावात में थी