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वो सामने भी नहीं फिर भी उन का शक क्यूँ है | शाही शायरी
wo samne bhi nahin phir bhi un ka shak kyun hai

ग़ज़ल

वो सामने भी नहीं फिर भी उन का शक क्यूँ है

मतरब निज़ामी

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वो सामने भी नहीं फिर भी उन का शक क्यूँ है
खिला नहीं है अगर फूल तो महक क्यूँ है

ये जू-ए-शीर कहीं जू-ए-ख़ूँ न बन जाए
कि अज़्म-ए-तेशा-ओ-फ़र्हाद में चमक क्यूँ है

इसी को क्या मैं मोहब्बत की ज़िंदगी कह दूँ
ये सिलसिला तिरी यादों का आज तक क्यूँ है

हमारी आँखों का सावन भी ये समझ न सका
जज़ीरे ख़ुश्क हैं भीगी हुई पलक क्यूँ है

तुम्हारे ख़त में मोहब्बत के रंग बिखरे हैं
जो ये ग़लत है तो लफ़्ज़ों में फिर धनक क्यूँ है

मिरे लहू में गुलाबों का रंग है 'मुतरिब'
मैं क्या बताऊँ कि इस शहद में नमक क्यूँ है