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वो न पहचाने ये ख़दशा सा लगता रहता है | शाही शायरी
wo na pahchane ye KHadsha sa lagta rahta hai

ग़ज़ल

वो न पहचाने ये ख़दशा सा लगता रहता है

परतव रोहिला

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वो न पहचाने ये ख़दशा सा लगता रहता है
रुख़ पे उस के नया चेहरा सा लगा रहता है

अपने घर में भी तो है चैन से सोना मुश्किल
छत न गिर जाए ये खटका सा लगा रहता है

वो ज़मीं ख़ाक उगाएगी अदावत के सिवा
प्यार पर जिस जगह पहरा सा लगा रहता है

भीड़ छटती नहीं इस कल्बा-ए-अहज़ाँ से कभी
आरज़ूएँ हैं कि मेला सा लगा रहता है

साफ़ कितना ही करें दामन-ए-क़ातिल को हलीफ़
लौह-ए-तारीख़ पे धब्बा सा लगा रहता है

तेरे आने की ख़ुशी भी नहीं होती 'परतव'
तू चला जाएगा धड़का सा लगा रहता है