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वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई | शाही शायरी
wo mai-parast hun badli na jab nazar aai

ग़ज़ल

वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई

शाद लखनवी

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वो मय-परस्त हूँ बदली न जब नज़र आई
सिमट गईं जो सियह-कारियाँ घटा छाई

सफ़ेद बाल हुए शब हुई जवानी की
दमीदा सुब्ह हुई चौंक सर पे धूप आई

हरम में ख़ाक हुआ हूँ वो आशिक़-ए-बर्बाद
मियान-ए-दैर हवा-ए-बुताँ उड़ा लाई

मैं वो हूँ बुलबुल-ए-बाग़-ए-जहाँ कोई गुल हो
दिया दिल उस को मोहब्बत की जिस में बू पाई

चमन में जा के जो पूछा बहार-ए-गुल का सबात
खिली न थी जो कली मुस्कुरा के मुरझाई

हिसार-ए-हुस्न के हाले में मुँह नज़र आया
मिला के हाथ जो ली उस हसीं ने अंगड़ाई

मैं वो किसान हूँ खेती पे बर्क़ ने जिस की
दुआ जो मेंह के लिए की तो आग बरसाई

रहे मुदाम यूँही इश्क़ में तह-ओ-बाला
जो ग़म से बैठ गया दिल तो उठने आँख आई