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वो ले के हौसला-ए-अज़्म-ए-बे-पनाह चले | शाही शायरी
wo le ke hausla-e-azm-e-be-panah chale

ग़ज़ल

वो ले के हौसला-ए-अज़्म-ए-बे-पनाह चले

अर्श मलसियानी

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वो ले के हौसला-ए-अज़्म-ए-बे-पनाह चले
जो लोग हँसते हुए सू-ए-क़त्ल-गाह चले

ग़रीब निकले रजज़-ख़्वाँ तो अहल-ए-दिल ने कहा
करो सलाम कि हिम्मत के बादशाह चले

फ़रेब खाए हुए ज़ुल्म ओ जौर इंसाँ के
ख़ुदा की ख़ास अदालत के दाद-ख़्वाह चले

न बीम-ए-मर्ग न ख़ौफ़-ए-अजल न रंज कोई
ख़ुशी से करते हुए रक़्स कज-कुलाह चले

सलीब ओ दार की सब रहमतों के पेश-ए-नज़र
वो तबर्रुक करते हुए हिर्स-ए-इज़्ज़-ओ-जाह चले

ज़माना चीख़ उठा सब की आँख भर आई
बराए क़त्ल जो मक़्तल को बे-गुनाह चले

ज़मीन वालो उठो उठ के इन को सज्दा करो
वो ले के परचम-ए-नौ 'अर्श' पा-ए-गाह चले