वो जो इक शक्ल मिरे चार तरफ़ बिखरी थी
मैं ने जब ग़ौर से देखा तो मिरी अपनी थी
फिर असीरों पे किसी ख़्वाब ने जादू डाला
रात कुछ हल्क़ा-ए-ज़ंजीर में ख़ामोशी थी
यूँ तो आदाब-ए-मोहब्बत में सभी जाएज़ था
फिर भी चुप रहने में इक शान दिल-आवेज़ी थी
रात भर जागने वालों ने पस-ए-शम्अ-ए-ज़र्द
सुब्ह इक ख़्वाब की सूरत की तरह देखी थी
शोरिश-ए-शेर में ख़ामोश सी क्यूँ है 'ज़ेहरा'
अच्छा-ख़ासा तो कभी वो भी कहा करती थी
ग़ज़ल
वो जो इक शक्ल मिरे चार तरफ़ बिखरी थी
ज़ेहरा निगाह