वो जिस के नाम में लज़्ज़त बहुत है
उसी के ज़िक्र से बरकत बहुत है
ज़रा महफ़ूज़ रस्तों से गुज़रना
तुम्हारी शहर में शोहरत बहुत है
अभी सूरज ने लब खोले नहीं हैं
अभी से धूप में शिद्दत बहुत है
मुझे सोने की क़ीमत मत बताओ
मैं मिट्टी हूँ मिरी अज़्मत बहुत है
किसी की याद में खोए रहेंगे
गुनह-गारों को ये जन्नत बहुत है
जिन्हें मसरूफ़ रहने का मरज़ था
उन्हें भी आज-कल फ़ुर्सत बहुत है
जहाँ पर ख़ुशबुएँ थीं ज़िंदगी की
उसी महफ़िल में अब ग़ीबत बहुत है
कभी तो हुस्न का सदक़ा निकालो
तुम्हारे पास ये दौलत बहुत है
ग़ज़ल ख़ुद कह के पढ़ना चाहते हो
मियाँ इस काम में मेहनत बहुत है
हवा तो थम चुकी लेकिन दियों के
रवय्यों में अभी दहशत बहुत है

ग़ज़ल
वो जिस के नाम में लज़्ज़त बहुत है
अंजुम बाराबंकवी