वो जिस के दिल में निहाँ दर्द दो-जहाँ का था
ख़बर किसी को नहीं कौन था कहाँ का था
तलाश-ए-यार में भटका किए ख़लाओं में
हमें ज़मीं का पता था न आसमाँ का था
हँसा जो फूल तो शबनम की आँख भर आई
बहार समझा जिसे दौर वो ख़िज़ाँ का था
हज़ार बार मरा ज़िंदगी में जीते-जी
वो शख़्स ख़ौफ़ जिसे मर्ग-ए-ना-गहाँ का था
वहीं पे जा के रुकी आज बे-ख़ुदी अपनी
जहाँ पे मोड़ मोहब्बत की दास्ताँ का था
बिखेरता ही रहा नूर वो शब-ए-ग़म में
जो माहताब तसव्वुर के आसमाँ का था
वो जिस ने रात दर-ए-दिल पे आ के दस्तक दी
ज़रूर झोंका किसी याद-ए-रफ़्तगाँ का था
तमाम उम्र की काविश से तय न हो पाया
वो एक फ़ासला जो अपने दरमियाँ का था
हुआ था क़ातिल सर-ए-आम जब मिरा यारो
अजीब रंग कुछ उस वक़्त आसमाँ का था

ग़ज़ल
वो जिस के दिल में निहाँ दर्द दो-जहाँ का था
शोला हस्पानवी