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वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात भर क्या था | शाही शायरी
wo ek shor sa zindan mein raat bhar kya tha

ग़ज़ल

वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात भर क्या था

शमीम हनफ़ी

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वो एक शोर सा ज़िंदाँ में रात भर क्या था
मुझे ख़ुद अपने बदन में किसी का डर क्या था

कोई तमीज़ न की ख़ून की शरारत ने
इक अब्र ओ बाद का तूफ़ाँ था दश्त ओ दर क्या था

ज़मीं पे कुछ तो मिला चंद उलझनें ही सही
कोई न जान सका आसमान पर क्या था

मिरे ज़वाल का हर रंग तुझ में शामिल है
तू आज तक मिरी हालत से बे-ख़बर क्या था

अब ऐसी फ़स्ल में शाख़ ओ समर पे बार न बन
ये भूल जा कि पस-ए-साया-ए-शजर क्या था

चटख़ती गिरती हुई छत उजाड़ दरवाज़े
इक ऐसे घर के सिवा हासिल-ए-सफ़र क्या था