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वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था | शाही शायरी
wo ek KHema-e-shab jis ka nam duniya tha

ग़ज़ल

वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था

क़ैसर-उल जाफ़री

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वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
कभी धुआँ तो कभी चाँदनी सा लगता था

हमारी आग भी तापी हमें बुझा भी दिया
जहाँ पड़ाव किया था अजीब सहरा था

हवा में मेरी अना भीगती रही वर्ना
मैं आशियाने में बरसात काट सकता था

जो आसमान भी टूटा गिरा मिरी छत पर
मिरे मकाँ से किसी बद-दुआ का रिश्ता था

तुम आ गए हो ख़ुदा का सुबूत है ये भी
क़सम ख़ुदा की अभी मैं ने तुम को सोचा था

ज़मीं पे टूट के कैसे गिरा ग़ुरूर उस का
अभी अभी तो उसे आसमाँ पे देखा था

भँवर लपेट के नीचे उतर गया शायद
अभी वो शाम से पहले नदी पे बैठा था

मैं शाख़-ए-ज़र्द के मातम में रह गया 'क़ैसर'
ख़िज़ाँ का ज़हर शजर की जड़ों में फैला था