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वो दिल कि था कभी सरसब्ज़ खेतियों की तरह | शाही शायरी
wo dil ki tha kabhi sarsabz khetiyon ki tarah

ग़ज़ल

वो दिल कि था कभी सरसब्ज़ खेतियों की तरह

रियाज़ मजीद

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वो दिल कि था कभी सरसब्ज़ खेतियों की तरह
सुलग रहा है झुलसते हुए थलों की तरह

ये शे'र जिस की ज़मीं को भी मुझ से शिकवे हैं
रहेगा याद पुरानी मोहब्बतों की तरह

किसी जगह पे भी सय्याह दिल ठहर न सका
जहाँ की सैर को निकले मुसाफ़िरों की तरह

उतरती ज़ेहन में भी ख़ुश-गवार धूप कभी
शुरू-ए-गर्मा के खुलते हुए दिनों की तरह

लहू रुलाती है बे-वक़्त तंग करती है
है उस की याद भी बे-रुत की बारिशों की तरह

तुम्हारी चाह का अंजाम देखिए क्या हो
लगा के बैठे हैं दाव जुआरियों की तरह

ख़ुद अपने साए से भी काँप काँप उठता हूँ
मैं सहमा फिरता हूँ मफ़रूर मुलज़िमों की तरह

उस आँख में कोई बे-रंग सी कशिश थी 'रियाज़'
पुराने क़िलओं' में कुंदा इबारतों की तरह