वो अहद-ए-ग़म की काहिश-हा-ए-बे-हासिल को क्या समझे
जो उन की मुख़्तसर रूदाद भी सब्र-आज़मा समझे
यहाँ वाबस्तगी वाँ बरहमी क्या जानिए क्यूँ है
न हम अपनी नज़र समझे न हम उन की अदा समझे
फ़रेब-ए-आरज़ू की सहल-अँगारी नहीं जाती
हम अपने दिल की धड़कन को तिरी आवाज़-ए-पा समझे
तुम्हारी हर नज़र से मुंसलिक है रिश्ता-ए-हस्ती
मगर ये दूर की बातें कोई नादान क्या समझे
न पूछो अहद-ए-उल्फ़त की बस इक ख़्वाब-ए-परेशाँ था
न दिल को राह पर लाए न दिल का मुद्दआ' समझे
ग़ज़ल
वो अहद-ए-ग़म की काहिश-हा-ए-बे-हासिल को क्या समझे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़