वो अहद अहद ही क्या है जिसे निभाओ भी
हमारे वादा-ए-उलफ़त को भूल जाओ भी
भला कहाँ के हम ऐसे गुमान वाले हैं
हज़ार बार हम आएँ हमें बुलाओ भी
बिगड़ चला है बहुत रस्म-ए-ख़ुद-कुशी का चलन
डराने वालो किसी रोज़ कर दिखाओ भी
नहीं कि अर्ज़-ए-तमन्ना पे मान ही जाओ
हमें इस अहद-ए-तमन्ना में आज़माओ भी
फ़ुग़ाँ कि क़िस्सा-ए-दिल सुन के लोग कहते हैं
ये कौन सी नई उफ़्ताद है हटाओ भी
तुम्हारी नींद में डूबी हुई नज़र की क़सम
हमें ये ज़िद है कि जागो भी और जगाओ भी

ग़ज़ल
वो अहद अहद ही क्या है जिसे निभाओ भी
मुस्तफ़ा ज़ैदी