वो आसमाँ के दरख़शिंदा राहियोँ जैसा
अँधेरी शब में सहर की गवाहियों जैसा
किरन-शुऊर, दिल-ए-जहल में उतारता जा
कि वक़्त आन पड़ा है तबाहियों जैसा
फ़क़ीर-ए-फ़र्दा! तिरे नाम से मिला है हमें
ये मुल्क-ए-ख़्वाब, तिरी बादशाहियों जैसा
नियाज़-ओ-अर्ज़-ए-सुख़न से कहाँ फ़रो होवे
ग़ुरूर-ओ-नाज़ कि है कज-कुलाहियों जैसा
कहा था किस ने कि शाख़-ए-नहीफ़ से फूटें
गुनाह हम से हुआ बे-गुनाहियों जैसा
मिरी बरात किसी अजनबी का लिख्खा हुआ
ये हर्फ़ हर्फ़ नविश्ता सियाहियों जैसा
ग़ज़ल
वो आसमाँ के दरख़शिंदा राहियोँ जैसा
आफ़ताब इक़बाल शमीम