EN اردو
वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए | शाही शायरी
wo aaj bhi qarib se kuchh kah ke haT gae

ग़ज़ल

वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए

साग़र आज़मी

;

वो आज भी क़रीब से कुछ कह के हट गए
दुनिया समझ रही थी मिरे दिन पलट गए

जो तिश्ना-लब न थे वो थे महफ़िल में ग़र्क़-ए-जाम
ख़ाली थे जितने जाम वो प्यासों में बट गए

संदल का मैं दरख़्त नहीं था तो किस लिए
जितने थे ग़म के नाग मुझी से लिपट गए

जब हाथ में क़लम था तो अल्फ़ाज़ ही न थे
जब लफ़्ज़ मिल गए तो मिरे हाथ कट गए

जीने का हौसला कभी मरने की आरज़ू
दिन यूँ ही धूप छाँव में अपने भी कट गए