EN اردو
वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का | शाही शायरी
waqt qarib hai phir manzar ke badalne ka

ग़ज़ल

वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का

प्रेम कुमार नज़र

;

वक़्त क़रीब है फिर मंज़र के बदलने का
सूरज की ज़िद देखो ये नहीं ढलने का

मैं भी तलाश-ए-आब-ए-हवस में निकला हूँ
शोर सुना था इक चश्मे के उबलने का

अहल-ए-जुनूँ क्यूँ दश्त में आना छोड़ दिया
भूल गए फ़न नोक-ए-ख़ार पे चलने का

सुब्ह तलक इस शहर में जाने क्या हो जाए
रिश्ता ढूँढो रातों-रात निकलने का

याद-ए-यार का आ जाना भी ठीक सही
राज़ मगर गहरा है दिल के मचलने का