वक़्त-ए-आख़िर याद है साक़ी की मेहमानी मुझे
मरते मरते दे दिया अंगूर का पानी मुझे
वो मिरी सूरत तो देखें अपनी सूरत के लिए
काश आईना बना दे मेरी हैरानी मुझे
कट गया है वस्ल से पहले ज़माना उम्र का
हाए धोका दे गया बहता हुआ पानी मुझे
दामन-ए-सहरा से लूँगा मर के वहशत में कफ़न
इक नया जोड़ा पिन्हाएगी ये उर्यानी मुझे
मेरे गुल को ला या अपने फूल ले जा अंदलीब
ऐसे काँटों से नहीं फ़ाँसें निकलवानी मुझे
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
मैं अगर माँगूँ तो दरिया भी न दे पानी मुझे
तिश्ना-कामी इस को कहते हैं कि बहर-ए-इश्क़ में
मैं अगर उतरूँ तो ऊपर फेंक दे पानी मुझे
ऐसी मुश्किल तुम ने डाली है कि जब मर जाऊँगा
मुद्दतों रोया करेगी मेरी आसानी मुझे
तू ने इतनी दी कि मय-ख़्वारी की हसरत बह गई
मैं ने इतनी पी कि आख़िर हो गई पानी मुझे
रोने जाता हूँ मैं अपनी हसरतों के ढेर पर
बे-कसी आ कर सिखा दे मर्सिया-ख़्वानी मुझे
हश्र में चलना पड़ेगा एक टेढ़ा रास्ता
कूचा-ए-जानाँ सिखा दे ठोकरें खानी मुझे
'मुज़्तर' अपने हक़ के काँटे चुन के मैं रुख़्सत हुआ
और क्या देती बहार-ए-गुलशन-ए-फ़ानी मुझे

ग़ज़ल
वक़्त-ए-आख़िर याद है साक़ी की मेहमानी मुझे
मुज़्तर ख़ैराबादी