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वलवले जितने सफ़र के थे सफ़र इतने न थे | शाही शायरी
walwale jitne safar ke the safar itne na the

ग़ज़ल

वलवले जितने सफ़र के थे सफ़र इतने न थे

मोहसिन शैख़

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वलवले जितने सफ़र के थे सफ़र इतने न थे
दूर थे रौशन नगर हम से मगर इतने न थे

बंद आँखें जब खुलीं तो रौशनी पहचान ली
बे-ख़बर हम हों तो हों पर बे-बसर इतने न थे

मस्लहत के हाथ अब अपनी अना भी बिक गई
बे-सर-ओ-सामाँ थे पहले भी मगर इतने न थे

मुस्तहिक़ आँखें मिरी जानिब उठी थीं जिस क़दर
दुख तो ये है मेरी शाख़ों पर समर इतने न थे

सतह-ए-चेहरा पर भी पहले एक ठहराव सा था
दिल की गहराई में भी 'मोहसिन' भँवर इतने न थे