वजूद को जिगर-ए-मो'तबर बनाते हैं 
अलम पे हाथ तो नेज़ों पे सर बनाते हैं 
चमन भी हो कोई अंबोह-ए-ख़ार-ओ-ख़स जैसे 
ये कार-ख़ाने तो बर्ग ओ समर बनाते हैं 
हवा का तब्सिरा ये साकिनान-ए-शहर पे था 
अजीब लोग हैं पानी पे घर बनाते हैं 
क़रीन-ए-अक़्ल है क्या कोई सोचता ही नहीं 
ख़बर उड़ाने से पहले ख़बर बनाते हैं 
नहीं ये शर्त कि सब तेज़-गाम हो जाएँ 
जो दीदा-वर हैं उन्हें हम-सफ़र बनाते हैं 
कड़ी हो धूप तो दो फूल प्यार के हँस कर 
तप्सीदा राहों में शाख़-ए-शजर बनाते हैं 
कमाल-ए-किब्र से कहता था चारागर मेरा 
कि हम तुफ़ंग ओ सिनाँ पुश्त पर बनाते हैं 
कभी सुकूँ कभी जोश-ए-जुनूँ कभी हैरत 
मिरा मिज़ाज मिरे कूज़ा-गर बनाते हैं 
किया रहीन-ए-हुनर हम को ना-रसाई ने 
उदास बाँहों में शम्स ओ क़मर बनाते हैं 
ख़याल-ए-ख़ैर हसीनों में है कि वक़्त-ए-ख़िराम 
ज़मीं को मादन-ए-लाल-ओ-गुहर बनाते हैं
        ग़ज़ल
वजूद को जिगर-ए-मो'तबर बनाते हैं
सय्यद अमीन अशरफ़

