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वज्ह-ए-रुस्वाई है अब लाएक़-ए-महफ़िल होना | शाही शायरी
wajh-e-ruswai hai ab laeq-e-mahfil hona

ग़ज़ल

वज्ह-ए-रुस्वाई है अब लाएक़-ए-महफ़िल होना

ख़ालिद यूसुफ़

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वज्ह-ए-रुस्वाई है अब लाएक़-ए-महफ़िल होना
उन की फ़हरिस्त-ए-तबर्रा में न शामिल होना

फ़न का दावा है तो कुछ जुरअत-ए-इज़हार भी हो
ज़ेब देता नहीं फ़नकार को बुज़दिल होना

मदह-ए-गुल-चीं हो जहाँ मस्लक-ए-मुर्ग़ान-ए-चमन
हम को मंज़ूर नहीं फ़ख़्र-ए-अनादिल होना

अपनी पहचान है वो क़र्या-ए-तारीक जहाँ
मुंसिफ़ों को भी मयस्सर नहीं आदिल होना

मेरे शेरों ने उसे सोच में डाला तो सही
नेक है दिल में भी रज़्म-ए-हक़-ओ-बातिल होना

चाँद निकले तो सही बाम पे कुछ शोर तो हो
कुछ ज़रूरी तो नहीं है मह-ए-कामिल होना

न सियासत न मईशत न ब-नाम-ए-मज़हब
अब गवारा नहीं पाबंद-ए-सलासिल होना

सानेहा इस से बड़ा और भला क्या होगा
'ख़ालिद' उस शोख़ के क़ब्ज़े में मिरा दिल होना