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वहशत में निकल आया हूँ इदराक से आगे | शाही शायरी
wahshat mein nikal aaya hun idrak se aage

ग़ज़ल

वहशत में निकल आया हूँ इदराक से आगे

रफ़ी रज़ा

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वहशत में निकल आया हूँ इदराक से आगे
अब ढूँढ मुझे मजमा-ए-उश्शाक़ से आगे

इक सुर्ख़ समुंदर में तिरा ज़िक्र बहुत है
ऐ शख़्स गुज़र दीदा-ए-नमनाक से आगे

उस पार से आता कोई देखूँ तो ये पूछूँ
अफ़्लाक से पीछे हूँ कि अफ़्लाक से आगे

दम तोड़ न दे अब कहीं ख़्वाहिश की हवा भी
ये ख़ाक तो उड़ती नहीं ख़ाशाक से आगे

जो नक़्श उभारे थे मिटाए भी हैं उस ने
दरपेश फिर इक चाक है इस चाक से आगे

आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
गुज़रा हूँ किसी दश्त-ए-ख़तरनाक से आगे

हम-ज़ाद की सूरत है मिरे यार की सूरत
मैं कैसे निकल सकता हूँ चालाक से आगे