वहशत के साथ दश्त मिरी जान चाहिए
इस ऐश के लिए सर-ओ-सामान चाहिए
कुछ इश्क़ के निसाब में कमज़ोर हम भी हैं
कुछ पर्चा-ए-सवाल भी आसान चाहिए
तुझ को सुपुर्दगी में सिमटना भी है ज़रूर
सच्चा है कारोबार तो नुक़सान चाहिए
अब तक किस इंतिज़ार में बैठे हुए हैं लोग
उम्मीद के लिए कोई इम्कान चाहिए
होगा यहाँ न दस्त-ओ-गरेबाँ का फ़ैसला
इस के लिए तो हश्र का मैदान चाहिए
आख़िर है ए'तिबार-ए-तमाशा भी कोई चीज़
इंसान थोड़ी देर को हैरान चाहिए
जारी हैं पा-ए-शौक़ की ईज़ा-रसानीयाँ
अब कुछ नहीं तो सैर-ए-बयाबान चाहिए
सब शाइराँ ख़रीदा-ए-दरबार हो गए
ये वाक़िआ तो दाख़िल-ए-दीवान चाहिए
मुल्क-ए-सुख़न में यूँ नहीं आने का इंक़लाब
दो-चार बार नून का एलान चाहिए
अपना भी मुद्दतों से है रुक़आ लगा हुआ
बिल्क़ीस-ए-शाइरी को सुलैमान चाहिए
ग़ज़ल
वहशत के साथ दश्त मिरी जान चाहिए
इरफ़ान सिद्दीक़ी