वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है
धुंध छाई है तो इक चेहरा अयाँ होता है
शाम ख़ुश-रंग परिंदों के चहक जाने से
घर हुआ जाता है दिन में जो मकाँ होता है
वो कोई जज़्बा हो अल्फ़ाज़ का मोहताज नहीं
कुछ न कहना भी ख़ुद अपनी ही ज़बाँ होता है
बे-सबब कुछ भी नहीं होता है या यूँ कहिए
आग लगती है कहीं पर तो धुआँ होता है
बाज़-गश्त और सदाओं की उभर आती है
जितना ख़ाली कोई 'अखिलेश' कुआँ होता है
ग़ज़ल
वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है
अखिलेश तिवारी