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वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है | शाही शायरी
wahm hi hoga magar rose kahan hota hai

ग़ज़ल

वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है

अखिलेश तिवारी

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वहम ही होगा मगर रोज़ कहाँ होता है
धुंध छाई है तो इक चेहरा अयाँ होता है

शाम ख़ुश-रंग परिंदों के चहक जाने से
घर हुआ जाता है दिन में जो मकाँ होता है

वो कोई जज़्बा हो अल्फ़ाज़ का मोहताज नहीं
कुछ न कहना भी ख़ुद अपनी ही ज़बाँ होता है

बे-सबब कुछ भी नहीं होता है या यूँ कहिए
आग लगती है कहीं पर तो धुआँ होता है

बाज़-गश्त और सदाओं की उभर आती है
जितना ख़ाली कोई 'अखिलेश' कुआँ होता है