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वही यकसानियत-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो थी | शाही शायरी
wahi yaksaniyat-e-sham-o-sahar hai ki jo thi

ग़ज़ल

वही यकसानियत-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो थी

अज़ीम मुर्तज़ा

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वही यकसानियत-ए-शाम-ओ-सहर है कि जो थी
ज़िंदगी दस्त-ब-दिल ख़ाक-बसर है कि जो थी

देख कर भी तिरे जल्वे नहीं देखे जाते
वही पाबंदी-ए-आदाब-ए-नज़र है कि जो थी

तुझ से मिल कर भी ग़म-ए-हिज्र की तल्ख़ी न मिटी
एक हसरत सी ये अंदाज़-ए-दिगर है कि जो थी

शो'ला-ए-दर्द बुझे देर हुई है लेकिन
वही ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर है कि जो थी

तू मिरी जान नहीं अब मगर ऐ जान-ए-'अज़ीम'
ज़िंदगी अब भी तिरी दस्त-निगर है कि जो थी