वही मोहतरम रहे शहर में जो तफ़ावुतों में लगे रहे
जिन्हें पास-ए-इज़्ज़त-ए-हर्फ़ था वो रियाज़तों में लगे रहे
उन्हें तुम दराज़ी-ए-उम्र की नहीं, हौसले की दुआएँ दो
वो जो एक निस्बत-ए-बे-अमाँ की हिफ़ाज़तों में लगे रहे
मिरे हाथ में तिरे नाम की वो लकीर मिटती चली गई
मिरे चारा-गर मिरे दर्द की ही वज़ाहतों में लगे रहे
उन्हें बे-यक़ीनी-ए-सुब्ह की मैं दलील दूँ भी तो किस तरह
वो जो इब्तिदा में ही इंतिहा की ज़मानतों में लगे रहे
तिरी हैरतें तिरी आँख में ही तमाम उम्र पड़ी रहीं
तिरी शाएरी के सभी हुनर तो शिकायतों में लगे रहे

ग़ज़ल
वही मोहतरम रहे शहर में जो तफ़ावुतों में लगे रहे
नज्मुस्साक़िब