वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
हुमक रहा है कहीं दिल में इक ख़याल-ए-क़दीम
खड़ा हूँ जैसे अभी तक अज़ल के ज़ीने पर
नज़र में है वही नज़्ज़ारा-ए-जमाल-ए-क़दीम
फ़िराक़-रात में ज़िंदा रहे कि ज़िंदा थी
हमारी रूह में सरशारी-ए-विसाल-ए-क़दीम
मिरा वजूद हवाला तिरा हुआ आख़िर
तो खा गया ना मुझे तू मिरे सवाल-ए-क़दीम
ये हब्स-ए-वक़्त ये ला-इंतिहा घुटन की रुतें
बरस के खुल भी कभी अब्र-ए-एहतिमाल-ए-क़दीम
'सईद' कहने को क्या कुछ बदल गया लेकिन
वही है तू वही ज़िंदान-ए-माह-ओ-साल-ए-क़दीम
ग़ज़ल
वही ख़राबा-ए-इम्काँ वही सिफ़ाल-ए-क़दीम
सईद अहमद