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वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं | शाही शायरी
wahi be-libas kyariyan kahin bel buTon ke bal nahin

ग़ज़ल

वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं

तफ़ज़ील अहमद

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वही बे-लिबास क्यारियाँ कहीं बेल बूटों के बल नहीं
तुझे क्या बुलाऊँ मैं बाग़ में किसी पेड़ पर कोई फल नहीं

हुए ख़ुश्क बहर तो क्या हुआ मिरी नाव ज़ोर-ए-हवा पे है
मिरे बादबाँ हैं भरे हुए सो बला से रेत में जल नहीं

है दबाव अश्रा हवास पर हैं तमाम उज़्व खिंचे रबर
हूँ उथल-पुथल से घिरा मगर मुझे इज़्न-ए-रद्द-ए-अमल नहीं

किसी बे-ग़ुरूब निगाह से किसी ला-ज़वाल शुआ' में
सभी ज़ावियों से अलग-थलग मुझे हल करो मिरा हल नहीं

तिरी नींद से बड़ी आँख में मुझे ताबकार करे किरन
मुझे ऐसी धात का क़ल्ब दे जिसे ख़ौफ़-ए-रद्द-ओ-बदल नहीं

कहीं पानियों में बिछी न हो कभी साहिलों सी खुली न हो
वो ज़मीं दे मेरे जहाज़ को जहाँ दूसरे की पहल नहीं

सभी सर्द-ओ-गर्म इबारतें मिरे ख़ाल-ओ-ख़द का हैं ज़ाहिरा
जिसे तख़लिए की अमीं कहूँ वो सुनाने वाली ग़ज़ल नहीं