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वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी | शाही शायरी
wafa-e-dostan kaisi jafa-e-dushmanan kaisi

ग़ज़ल

वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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वफ़ा-ए-दोस्ताँ कैसी जफ़ा-ए-दुश्मनाँ कैसी
न पूछा हो किसी ने जिस को उस की दास्ताँ कैसी

कुछ ऐसा एहतिराम-ए-दर्द-ए-उल्फ़त है मिरे दिल को
ख़मोशी हुक्मराँ है आह ओ फ़रियाद ओ फ़ुग़ाँ कैसी

किसी को फ़िक्र-ए-आजादी नहीं इस क़ैद-ए-रंगीं से
दिल-ए-आलम पे है छाई हुई मोहर-ए-बुताँ कैसी

भुला ही देते हैं उस को जो गुज़रा बज़्म-ए-आलम से
है सब को अपनी अपनी फ़िक्र याद-ए-रफ़्तगाँ कैसी

तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया
तो फिर मुझ पर नज़र डाली ये तुम ने मेहरबाँ कैसी

अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
तो वो सब को बता देते है 'वहशत' की ज़बाँ कैसी