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वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़ | शाही शायरी
wan kamar bandhe hain mizhgan qatl par donon taraf

ग़ज़ल

वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़

शाह नसीर

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वाँ कमर बाँधे हैं मिज़्गाँ क़त्ल पर दोनों तरफ़
याँ सफ़-ए-उश्शाक़ हैं ज़ेर-ओ-ज़बर दोनों तरफ़

ज़ुल्फ़ का सर-बस्ता कूचा माँग का रस्ता है तंग
दिल तिरी शामत है मत जा बे-ख़तर दोनों तरफ़

दैर-ओ-काबा में तफ़ावुत ख़ल्क़ के नज़दीक है
शाहिद-ए-मअ'नी का हर सूरत है घर दोनों तरफ़

है वो दरिया में नहाता मैं हूँ ग़र्क़-ए-आब-ए-शर्म
कुछ अजब इक माजरा है तुर्फ़ा-तर दोनों तरफ़

इश्क़ वो है जिस के हाथों क़ुमरी ओ बुलबुल के आह
ज़ेर-ए-सर्व-ओ-गुल पड़े हैं बाल-ओ-पर दोनों तरफ़

चश्म में क्या नूर है दिल में भी उस का है ज़ुहूर
ज़ाहिर-ओ-बातिन वही है जल्वा-गर दोनों तरफ़

आमद-ओ-शुद में है देखी सैर-ए-बस्ती-ओ-अदम
हम को इस मेहमाँ-सरा में है सफ़र दोनों तरफ़

शम्अ कुछ जलती नहीं परवाना भी देता है जी
सोज़िश-ए-उल्फ़त से है जी का ज़रर दोनों तरफ़

पंजा-ए-मिज़्गाँ पे रख्खूँ क्यूँ न मैं दिल और जिगर
नज़्र को लाया हूँ तेरी कर नज़र दोनों तरफ़

दिल में गर आता है तो आ जान-ए-मन आँखों की राह
इस मकान-ए-दिल-कुशा के हैं ये दर दोनों तरफ़

कुछ हबाब ओ बहर में मत फ़र्क़ समझो ऐ 'नसीर'
देखो टुक चश्म-ए-हक़ीक़त खोल कर दोनों तरफ़