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वादा-ओ-क़ौल-ओ-क़सम ने मुझे जीने न दिया | शाही शायरी
wada-o-qaul-o-qasam ne mujhe jine na diya

ग़ज़ल

वादा-ओ-क़ौल-ओ-क़सम ने मुझे जीने न दिया

शाज़ तमकनत

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वादा-ओ-क़ौल-ओ-क़सम ने मुझे जीने न दिया
क्या सितम है कि करम ने मुझे जीने न दिया

दिल तो आमादा-ए-ग़म था ब-ईं बर्बादी-ए-जाँ
मगर अंदाज़ा-ए-ग़म ने मुझे जीने न दिया

नाज़‌‌‌‌-बरदार-ए-सवाल-ए-दिल-ए-पुर-ख़ूँ न मिला
कासा-ए-दीदा-ए-नम ने मुझे जीने न दिया

तू जफ़ा-पेशा है किस मुँह से कहूँ दुनिया से
अपनी चाहत के भरम ने मुझे जीने न दिया

एक नादीदा ख़ुदा ने मिरे नाले न सुने
एक पत्थर के सनम ने मुझे जीने न दिया

एक साए का करम है तपिश-ए-जाँ पे हनूज़
एक दीवार के ख़म ने मुझे जीने न दिया

शे'र लिखता हूँ कि तक़दीर-ए-तमन्ना ऐ 'शाज़'
हुनर-ए-लौह-ओ-क़लम ने मुझे जीने न दिया