वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा
रोज़ समझूँगा कि आज आइएगा
जान का ग़म नहीं ग़म ये है कि आप
क़त्ल कर के मुझे पछ्ताइएगा
मैं भी हूँ हज़रत-ए-नासेह दाना
कुछ समझ कर मुझे समझाइएगा
लाग़र इतना हूँ कि हूँ घर में मगर
मेरे घर में न मुझे पाइएगा
तुम नहीं क़ौल-ओ-क़सम के सच्चे
झूट कहता हूँ क़सम खाइएगा
दर पे रहने की इजाज़त दे कर
कहते हैं पाँव न फैलाइएगा
क्या है जो कहते हो मुतरिब से तुम आज
कोई 'नाज़िम' की ग़ज़ल गाइएगा

ग़ज़ल
वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा
मोहम्मद यूसुफ़ अली ख़ाँ नाज़िम रामपुरी