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वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा | शाही शायरी
wada gar rose kiye jaiyega

ग़ज़ल

वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा

मोहम्मद यूसुफ़ अली ख़ाँ नाज़िम रामपुरी

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वा'दा गर रोज़ किए जाइएगा
रोज़ समझूँगा कि आज आइएगा

जान का ग़म नहीं ग़म ये है कि आप
क़त्ल कर के मुझे पछ्ताइएगा

मैं भी हूँ हज़रत-ए-नासेह दाना
कुछ समझ कर मुझे समझाइएगा

लाग़र इतना हूँ कि हूँ घर में मगर
मेरे घर में न मुझे पाइएगा

तुम नहीं क़ौल-ओ-क़सम के सच्चे
झूट कहता हूँ क़सम खाइएगा

दर पे रहने की इजाज़त दे कर
कहते हैं पाँव न फैलाइएगा

क्या है जो कहते हो मुतरिब से तुम आज
कोई 'नाज़िम' की ग़ज़ल गाइएगा