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उठते हुए क़दमों की धमक आने लगी है | शाही शायरी
uThte hue qadmon ki dhamak aane lagi hai

ग़ज़ल

उठते हुए क़दमों की धमक आने लगी है

मोहम्मद अल्वी

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उठते हुए क़दमों की धमक आने लगी है
पौ फटने से पहले ही गली जाग उठी है

आशिक़ हो तो चोरों में भी अब नाम लिखाओ
दरवाज़ा भले बंद है खिड़की तो खुली है

लोग अपने मकानों की तरफ़ भाग रहे हैं
घर वालों पे जैसे कोई उफ़्ताद पड़ी है

ऐ बाद-ए-सबा किस लिए फिरती है परेशाँ
क्या तू भी उसी फूल की ठुकराई हुई है

आ गर्दिश-ए-दौराँ तुझे सीने से लगा लूँ
अब तक तो मिरी जाँ तू मिरे साथ रही है

अब आए हो दुनिया में तो यूँ मुँह न बिगाड़ो
दो रोज़ तो रहना है बुरी है तो बुरी है

बाज़ार के दामों की शिकायत है हर इक को
फिर भी सर-ए-बाज़ार बड़ी भीड़ लगी है

काँटे की तरह सूख के रह जाओगे 'अल्वी'
छोड़ो ये ग़ज़ल-गोई ये बीमारी बुरी है