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उठा के मेरे ज़ेहन से शबाब कोई ले गया | शाही शायरी
uTha ke mere zehn se shabab koi le gaya

ग़ज़ल

उठा के मेरे ज़ेहन से शबाब कोई ले गया

अज़ीज़ तमन्नाई

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उठा के मेरे ज़ेहन से शबाब कोई ले गया
अंधेरे चीख़ते हैं आफ़्ताब कोई ले गया

मैं सारे काग़ज़ात ले के देखता ही रह गया
सवाब कोई ले गया अज़ाब कोई ले गया

सुपुर्द कर के ख़ामुशी की मोहर-ए-ख़ुश-नुमा मुझे
लबों से नारा-हा-ए-इंक़लाब कोई ले गया

है ए'तिराफ़ मेरे हाथ में जो एक चीज़ थी
सँभाल कर रखा तो था जनाब कोई ले गया

ये ग़म नहीं कि मुझ को जागना पड़ा है उम्र भर
ये रंज है कि मेरे सारे ख़्वाब कोई ले गया

शजर शजर वरक़ वरक़ पयाम-बर वहाँ भी है
जहाँ से हर सहीफ़ा हर किताब कोई ले गया

शनाख़्त हो सकी न फिर भी ये मिरा क़ुसूर था
हमारे दरमियाँ था जो हिजाब कोई ले गया