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उतर कर पानियों में चाँद महव-ए-रक़्स रहता है | शाही शायरी
utar kar paniyon mein chand mahw-e-raqs rahta hai

ग़ज़ल

उतर कर पानियों में चाँद महव-ए-रक़्स रहता है

अज़हर नक़वी

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उतर कर पानियों में चाँद महव-ए-रक़्स रहता है
मिरी आँखों में कुछ इस तौर कोई शख़्स रहता है

अजब हैरत है अक्सर देखता है मेरे चेहरे को
ये किस ना-आश्ना का आइने में अक्स रहता है

मिरी बस्ती का कोई घर भी घर जैसा नहीं लगता
कहीं तामीर-ए-बाम-ओ-दर में कोई नक़्स रहता है

जमी है गर्द आँखों में कई गुमनाम बरसों की
मिरे अंदर न जाने कौन बूढ़ा शख़्स रहता है

चलो बाद-ए-सबा को जंगलों से ढूँढ कर लाएँ
फ़सील-ए-शहर में 'अज़हर' बला का हब्स रहता है